भक्ति है आकर्षणी शक्ति जो खींच कर मानव को प्रभु के निकट ले जाती है। यदि भक्ति नहीं तो ईश्वर की निकटता का लाभ नहीं हो पाएगा। हमारे धर्म में यह जो भक्ति तत्व है, उस का उदभव पहले हुआ ब्रज के कृष्ण के समय में। पार्थ सारथी कृष्ण तो उनसे कुछ दिनों बाद के हैं। भक्ति में भिन्न-भिन्न व्यक्ति ईश्वर को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते हैं। अपने – अपने संस्कारों के अनुरूप ब्रज के कृष्ण को भी लोगों ने तीन अलग – अलग दृष्टिकोण से देखा था। हम परम पुरुष को सुंदर रूप में, आकर्षक रूप में, एकांत निजी रूप में, जिनसे ज्यादा आत्मीय और निकट और कोई नहीं हो सकता, पहली बार ब्रज के कृष्ण के रूप में पाते हैं।
नंद और यशोदा ने कृष्ण को लिया था वात्सल्य भाव से। अहा! मेरा बेटा कितनी सुंदर है। कितनी मीठी बातें करता है, कितनी प्यारी हंसी है, तोतली भाषा में बातें करता है। इसे गोद में उठा कर प्यार करूंगी। वे इसी में भूले हुए हैं। उन्होंने परम पुरुष के विराट भाव को एक छोटे से शिशु के माध्यम से देखा। यह वात्सल्य भाव है। परम पुरुष को अपनी संतान मानकर उसको प्यार करना और उसी में मस्त रहना। इस वात्सल्य भाव से कृष्ण के लौकिक पिता वासुदेव व लौकिक माता देवकी वंचित थे। उन्होंने तो पुत्र को बड़ा होने पर पाया, कृष्ण तब लगभग किशोर हो चुके थे। और राधा ने उन्हें पाया मधुर भाव में। जीवन की जो भी मधुरतम अभिव्यक्ति है – जो भी माधुर्यमय कर्म चर्चा है, उसमें। मधुर भाव क्या है? मेरी सारी सत्ता-शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक – अपनी समस्त सत्ता को एक बिंदु में प्रतिष्ठित करके अपना समस्त आनंद इन कृष्ण से ही पाऊं -इसी का नाम है मधुरभाव, यही है राधा भाव।
साधारण भक्त, निन्यानवे प्रतिशत भक्त इसी राधा भाव को लेकर रहते हैं, क्योंकि यह है मधुर भाव। ब्रज के कान्हा बांसुरी बजाकर उस माधुर्य की ओर अपने को बढ़ा देते हैं। कोई कहे कि – नहीं, उस ओर नहीं देखूंगा। किंतु जैसे ही बांसुरी की धुन कानों में पड़ी, वह मचल उठता है, हाय बिना उसे देखे क्या रहा जा सकता है। तभी कानों में आवाज आती है, आज क्यों नहीं आए…. आते क्यों नहीं….. मैं तुम्हारे ही लिए बैठा हूं। यही है मधुर भाव। मानों मधुरता से सराबोर एक सत्ता, मानो रस घन।
ये कृष्ण कैसे हैं ?
ग्रीष्म के प्रचंड ताप के उपरांत किसी कोने में जैसे काले कजरारे मेघ उमड़ आए हों, वे मेघ जैसे मनुष्य के मन में विराट आश्वासन लेकर आते हैं, मेरे कृ ष्ण भी वैसे ही आश्वासन पूर्ण हैं। जिसे देखते ही मन स्निग्ध हो जाता है, आंखें तृप्त हो जाती हैं, मेरे कृष्ण वैसे ही हैं। मेरे कृष्ण जब मेरी ओर देखकर हंस देते हैं, मुझे उसी से उनके होंठ रंगीन से प्रतीत होते हैं। उनकी मधुर हंसी उनके होठों को रंजित करती है। ये जो यशोदा नंदन हैं, वात्सल्य रूप में जिन्हें पाकर यशोदा और नंद आनंदित हुए हैं , देवता जिन्हें सखा भाव में पाकर आनंदित हुए हैं, ब्रज के गोपालक जिन्हें सखा भाव में पाते हैं, राधा ने उन्हें पाया था मधुर भाव में। उन्हीं कृष्ण को वृंदावन में यशोदा – नंद ने वात्सल्य भाव में देखा और ब्रज के गोपालकों के पास केवल आंतरिकता पूर्ण एक मन है, उन्होंने उन्हें पाया था सखा रूप में। देवता गण उन्हें पाते हैं, सखा रूप में। अर्थात उन्हें आरंभ में सखा के रूप में ग्रहण किया और बाद में कहा कि तुम ही सब कुछ हो। तुम सखा तो हो ही, उससे भी अधिक हो। हे कृष्ण, हे ब्रज के कृष्ण, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं।