वास्तु के अनुसार भवन के मध्य भाग को ब्रह्मस्थान कहते हैं। ब्रह्मस्थान घर के अन्य वास्तुदोषों के कुप्रभावों को कम करने में सक्षम होता है।
वास्तु, प्रकृति से मनुष्य के सांमजस्य को बनाए रखने की वह कला है जो दस दिशाओं तथा पंच तत्त्वों पर आधारित होती है।
किसी भी दिशा या तत्त्व के दोषयुक्त हो जाने पर वास्तु नकारात्मक प्रभाव देने लगती है जिससे कारण वहां निवास करने वालों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। प्लॉट या भवन के मध्य भाग को ब्रह्मस्थान माना गया है। पुरानी शैली के घरों, हवेलियों और महलों में ब्रह्मस्थान पर खुल आंगन जरूर होता था। खुला हुआ ब्रह्मस्थान घर के अन्य वास्तुदोषों के कुप्रभावों प्रभावों को कम करने में सक्षम होता है।
ब्रह्म स्थान, वास्तुशास्त्र में वास्तुपुरुष की नाभि और उसके आस-पास का स्थान है। जिस प्रकार पेट से पूरे शरीर का नियंत्रण होता है उसी प्रकार ब्रह्मस्थान से भी पूरे घर को स्वच्छ वायु, स्वच्छ प्रकाश एवं ऊर्जा की प्राप्ति होती है। सम्पूर्ण घर में ऊर्जा का प्रवाह ब्रह्मस्थान से ही हो होता है। वृहत संहिता में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि जो गृहस्वामी खुशहाली चाहते हैं, वे ब्रह्मस्थान के स्थान पर गंदगी न करें। ईशान कोण की ही भांति इस स्थान को भी साफ रखना चाहिए।
घर के मध्य का यह स्थान थोड़ा सा ऊंचा (गजपुष्ट) होना चाहिए। यदि हम ब्रह्मस्थान पर जल डालें तो वह चारों तरफ फैल जाए। इस जगह में गड्ढा या मकान का मध्य बैठा हुआ नहीं होना चाहिए नहीं तो गृहस्वामी को आर्थिक तंगी से जूझना पड़ सकता है। यहां भारी फर्नीचर नहीं रखें। यथासंभव इस स्थान को खाली रखें।
ब्रह्मस्थान में सीढ़ी, खंभा, भूमिगत पानी की टंकी, बोरिंग, सेप्टिक टैंक, शौचालय इनका निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। इस जगह झाड़ू-पोंछा आदि वस्तुएं बिल्कुल न रखें।
सुख-समृद्धि और निरोगी जीवन की प्राप्ति के लिए अपने घर का निर्माण इस प्रकार करें कि ब्रह्मस्थल दोषमुक्त हो। यह स्थान आध्यात्म और दर्शन से संबंध रखता है।
इस स्थान पर नियमित रूप से भजन, कीर्तन, रामायण पाठ अथवा गीता का पाठ करने से दोषपूर्ण ब्रह्मस्थान से उत्पन्न हुई परेशानियों का निदान हो जाता है।